Monday 29 August 2011

तुम्हारा एहसास...

कुछ यूँ हुआ था उस रोज़ ...
बैठी थी मैं अपने कमरे में
और तुम आ गए.. ना कोई दस्तक..
ना ही कोई आहट... चुप-चाप दबे पाँव आये..
और हौले से बैठ गए पैताने पे...
तुम बिल्कुल सामने थे मेरे...
उस रोज़ पहली बार थामा था तुमने... हाथ मेरा...
बस मैं खो गयी उस एक स्पर्श में...
कुछ न कहा मैंने ... बस नज़रें झुकाए बैठी रही ..
पर शायद कुछ कहा था तुमने.. जिसे मैं सुन न सकी...
क्या करती मैं..??? तुम्हारे छूने भर से...
उस ठहरे हुए पानी में अजीब सी तरंगें उठ गयी..
यूँ लगा कि बस ये वक़्त यहीं थम गया है ... और साथ ही
दिल कि धडकनें भी...
बस वो इक पल था जब मैं खुद से मिली
मैंने जाना खुद को और उन् एहसासों को
अजनबी हो तुम, कुछ जाने पहचाने से 
मुझसे दूर पर दिल के बेहद करीब.....
अचानक से कुछ टूटने की आवाज़ से चौंक गई मैं...
देखा... हाथ लगने से.. पास की मेज़ पे रखा..
कांच का  गिलास टूट गया था.. तुम न थे वहां... 
और सारे एहसास कांच टुकड़ो के रूप में बिखरे पड़े थे फर्श पर..
और वही मैं थी होस्टल  के कमरे की खिड़की से...
चाँद को निहारती.. भ्रम था मेरा कि मैंने तुमको देखा है...
लुढ़क आये दो आंसू गाल पे..
फिर बैठ गयी मैं उन एहसासों को पन्नो पर उकेरने....